Wednesday, January 22, 2020

चन्द्रगुप्त मौर्य (जन्म

चन्द्रगुप्त मौर्य (जन्म ३४५ ई॰पु॰, राज ३२२[2]-२९८ ई॰पु॰[3]) में भारत के सम्राट थे। इनको कभी कभी चन्द्रनन्द नाम से भी संबोधित किया जाता है। इन्होंने मौर्य साम्राज्यकी स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त पूरे भारत को एक साम्राज्य के अधीन लाने में सफ़ल रहे। भारत राष्ट्र निर्माण मौर्य गणराज्य ( चन्द्रगुप्त मौर्य )
सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य
मौर्य
Chandragupt maurya Birla mandir 6 dec 2009 (31).JPG
बिरला मंदिर, दिल्ली में एक शैल-चित्र
सम्राट बिन्दुसार मौर्य
शासनावधि३२२ ईसा पूर्व-२९८ ईसा पूर्व
राज्याभिषेक३२२ ईसा पूर्व
पूर्ववर्तीनंद साम्राज्य के धनानंद
उत्तरवर्तीसम्राट बिन्दुसार मौर्य
जन्म345 ईसा पूर्व
पाटलिपुत्र (अब बिहार में)
निधन297 ईसा पूर्व (उम्र 47–48)
श्रवणबेलगोला, कर्नाटक
समाधि
श्रवण बेलगोला कर्नाटक मैसूर चन्द्रगिरी हिल पर्वत
जीवनसंगीदुर्धरा और हेलेना (सेलुकस निकटर की पुत्री)
संतानबिन्दुसार
पूरा नाम
चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य,
घरानामौर्य वंश
पितासूर्यगुप्त (सर्वार्थसिद्धी) मौर्य
माताश्री मती मुरा देवी मौर्य (शिवा)
धर्मसनातन धर्म , जैन धर्म[1]
हस्ताक्षरसम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के हस्ताक्षर
सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण की तिथि साधारणतया ३२२ ई.पू. निर्धारित की जाती है। उन्होंने लगभग २४ वर्ष तक शासन किया और इस प्रकार उनके शासन का अंत प्राय: २९८ ई.पू. में हुआ।

विष्णु पुराण, माहाभारत के और भारतीय इतिहासकारो जैसे कि द्विजेन्द्रलाल राय ,मुद्राराक्षस के अनुसार चन्द्रगुप्त, सूूर्यगुप्त(सर्वार्थसिद्धी)ओर मुर (शिवा) के पुत्र है.
मेगस्थनीज ने चार साल तक चन्द्रगुप्त की सभा में एक यूनानी राजदूत के रूप में सेवाएँ दी। ग्रीक और लैटिन लेखों में , चंद्रगुप्त को क्रमशः सैंड्रोकोट्स और एंडोकॉटस के नाम से जाना जाता है।
चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण राजा हैं। चन्द्रगुप्त के सिहासन संभालने से पहले, सिकंदर ने उत्तर पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण किया था, और 324 ईसा पूर्व में उसकी सेना में विद्रोह की वजह से आगे का प्रचार छोड़ दिया, जिससे भारत-ग्रीक और स्थानीय शासकों द्वारा शासित भारतीय उपमहाद्वीप वाले क्षेत्रों की विरासत सीधे तौर पर चन्द्रगुप्त ने संभाली। चंद्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य (जिसे कौटिल्य और विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है, जौ चन्द्र गुप्त के प्रधानमंत्री भी थे) के साथ, एक नया साम्राज्य बनाया, राज्यचक्र के सिद्धांतों को लागू किया, एक बड़ी सेना का निर्माण किया
और अपने साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा।[4]
चंद्रगुप्त मौर्य प्राचीन भारत के नेपाल के तराई वाले क्षेत्र छोटे से गणराज्य के राजा के पुत्र थे उनके पिता की हत्या कर राज्य हथियाने के कारण उनकी माता उन्हें लेकर पाटली पुत्र चली आई थी यही पर उनकी मुलाकात चाणक्य से हुईं थीं। मध्यकालीन अभिलेखों के साक्ष्यानुसार मौर्य सूर्यवंशी मांधाता से उत्पन्न थे। बौद्ध साहित्य में मौर्य क्षत्रिय कहे गए हैं। महावंश चंद्रगुप्त कोमोरिय (मौर्य) खत्तियों से पैदा हुआ बताता है। दिव्यावदान में बिंदुसार स्वयं की मूर्धाभिषिक्त क्षत्रिय कहते हैं। सम्राट अशोक भी स्वयं को क्षत्रिय बताते हैं। महापरिनिब्बान सुत्त से 5 वी शताब्दी ई 0 पू 0 उत्तर भारत आठ छोटे छोटे गाणराज्यों में बटा था। मोरिय पिप्पलिवन के शासक, गणतांत्रिक व्यवस्थावाली जाति सिद्ध होते हैं। पिप्पलिवन ई.पू. छठी शताब्दी में नेपाल की तराई में स्थित रुम्मिनदेई से लेकर आधुनिक देवरिया जिले के कसया प्रदेश तक को कहते थे। मगध साम्राज्य की प्रसारनीति के कारण इनकी स्वतंत्र स्थिति शीघ्र ही समाप्त हो गई। यहीं कारण था कि चंद्रगुप्त का मयूरपोषकों, चरवाहों तथा लुब्धकों के संपर्क में पालन हुआ। परंपरा के अनुसार वह बचपन में अत्यंत तीक्ष्णबुद्धि था, एवं समवयस्क बालकों का सम्राट् बनकर उनपर शासन करता था। ऐसे ही किसी अवसर पर चाणक्य की दृष्टि उसपर पड़ी, फलत: चंद्रगुप्त तक्षशिला गए जहाँ उन्हें राजोचित शिक्षा दी गई। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के अनुसार सांद्रोकात्तस (चंद्रगुप्त) साधारणजन्मा था।
सिकंदर के आक्रमण के समय लगभग समस्त उत्तर भारत धनानंद द्वारा शासित था। नंद सम्राट् अपनी निम्न उत्पत्ति एवं निरंकुशता के कारण जनता में अप्रिय थे। चाणक्य तथा चंद्रगुप्त ने राज्य में व्याप्त असंतोष का सहारा ले नंद वंश को उच्छिन्न करने का निश्चय किया अपनी उद्देश्यसिद्धि के निमित्त चाणक्य और चंद्रगुप्त ने एक विशाल विजयवाहिनी का प्रबंध किया ब्राह्मण ग्रंथों में नंदोन्मूलन का श्रेय चाणक्य को दिया गया है। जस्टिन के अनुसार चंद्रगुप्त डाकू था और छोटे-बड़े सफल हमलों के पश्चात्‌ उसने साम्राज्यनिर्माण का निश्चय किया। अर्थशास्त्र में कहा है कि सैनिकों की भरती चोरों, म्लेच्छों, आटविकों तथा शस्त्रोपजीवी श्रेणियों से करनी चाहिए। मुद्राराक्षस से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने हिमालय प्रदेश के राजा पर्वतक से संधि की। चंद्रगुप्त की सेना में शक, यवन, किरात, कंबोज, पारसीक तथा वह्लीक भी रहे होंगे। प्लूटार्क के अनुसार सांद्रोकोत्तस ने संपूर्ण भारत को 6,00,000 सैनिकों की विशाल वाहिनी द्वारा जीतकर अपने अधीन कर लिया। जस्टिन के मत से भारत चंद्रगुप्त के अधिकार में था।
चंद्रगुप्त ने सर्वप्रथम अपनी स्थिति पंजाब में सदृढ़ की। उसका यवनों विरुद्ध स्वातंत्रय युद्ध संभवत: सिकंदर की मृत्यु के कुछ ही समय बाद आरंभ हो गया था। जस्टिन के अनुसार सिकंदर की मृत्यु के उपरांत भारत ने सांद्रोकोत्तस के नेतृत्व में दासता के बंधन को तोड़ फेंका तथा यवन राज्यपालों को मार डाला। चंद्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियन लगभग 323 ई.पू. में आरंभ किया होगा, किंतु उन्हें इस अभियान में पूर्ण सफलता 317 ई.पू. या उसके बाद मिली होगी, क्योंकि इसी वर्ष पश्चिम पंजाब के शासक क्षत्रप यूदेमस (Eudemus) ने अपनी सेनाओं सहित, भारत छोड़ा। चंद्रगुप्त के यवनयुद्ध के बारे में विस्तारपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। इस सफलता से उन्हें पंजाब और सिंध के प्रांत मिल गए।
चंद्रगुप्त मौर्य का संभवत: महत्वपूर्ण युद्ध धनानंद के साथ हुआ। जस्टिन एवं प्लूटार्क के वृत्तों में स्पष्ट है कि सिकंदर के भारत अभियन के समय चंद्रगुप्त ने उसे नंदों के विरुद्ध युद्ध के लिये भड़काया था, किंतु किशोर चंद्रगुप्त के व्यवहार ने यवनविजेता को क्रुद्ध कर दिया। भारतीय साहित्यिक परंपराओं से लगता है कि चंद्रगुप्त और चाणक्य के प्रति भी नंदराजा अत्यंत असहिष्णु रह चुके थे। महावंश टीका के एक उल्लेख से लगता है कि चंद्रगुप्त ने आरंभ में नंदसाम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया, किंतु उन्हें शीघ्र ही अपनी त्रुटि का पता चल गया और नए आक्रमण सीमांत प्रदेशों से आरंभ हुए। अंतत: उन्होंने पाटलिपुत्र घेर लिय और धननंद को मार डाला।
इसके बाद, ऐसा प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिण में भी किया। मामुलनार नामक प्राचीन तमिल लेखक ने तिनेवेल्लि जिले की पोदियिल पहाड़ियों तक हुए मौर्य आक्रमणों का उल्लेख किया है। इसकी पुष्टि अन्य प्राचीन तमिल लेखकों एवं ग्रंथों से होती है। आक्रामक सेना में युद्धप्रिय कोशर लोग सम्मिलित थे। आक्रामक कोंकण से एलिलमलै पहाड़ियों से होते हुए कोंगु (कोयंबटूर) जिले में आए और यहाँ से पोदियिल पहाड़ियों तक पहुँचे। दुर्भाग्यवश उपर्युक्त उल्लेखों में इस मौर्यवाहिनी के नायक का नाम प्राप्त नहीं होता। किंतु, 'वंब मोरियर' से प्रथम मौर्य सम्राट् चंद्रगुप्त का ही अनुमान अधिक संगत लगता है।
मैसूर से उपलब्ध कुछ अभिलेखों से चंद्रगुप्त द्वारा शिकारपुर तालुक के अंतर्गत नागरखंड की रक्षा करने का उल्लेख मिलता है। उक्त अभिलेख 14वीं शताब्दी का है किंतु ग्रीक, तमिल लेखकों आदि के सक्ष्य के आधार पर इसकी ऐतिहासिकता एकदम अस्वीकृत नहीं की जा सकती।
चंद्रगुप्त ने सौराष्ट्र की विजय भी की थी। महाक्षत्रप रुद्रदामन्‌ के जूनागढ़ अभिलेख से प्रमाणित है कि चंद्रगुप्त के राष्ट्रीय, वैश्य पुष्यगुप्त यहाँ के राज्यपाल थे।
चद्रंगुप्त का अंतिम युद्ध सिकंदर के पूर्वसेनापति तथा उनके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट् सेल्यूकस के साथ हुआ। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि सिकंदर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस को उसके स्वामी के सुविस्तृत साम्राज्य का पूर्वी भाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ। सेल्यूकस, सिकंदर की भारतीय विजय पूरी करने के लिये आगे बढ़ा, किंतु भारत की राजनीतिक स्थिति अब तक परिवर्तित हो चुकी थी। लगभग सारा क्षेत्र एक शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में था। सेल्यूकस 305 ई.पू. के लगभग सिंधु के किनारे आ उपस्थित हुआ। ग्रीक लेखक इस युद्ध का ब्योरेवार वर्णन नहीं करते। किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि चंद्रगुप्त की शक्ति के संमुख सेल्यूकस को झुकना पड़ा। फलत: सेल्यूकस ने चंद्रगुप्त को विवाह में एक यवनकुमारी तथा एरिया (हिरात), एराकोसिया (कंदहार), परोपनिसदाइ (काबुल) और गेद्रोसिय (बलूचिस्तान) के प्रांत देकर संधि क्रय की। इसके बदले चंद्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किए। उपरिलिखित प्रांतों का चंद्रगुप्त मौर्य एवं उसके उततराधिकारियों के शासनांतर्गत होना, कंदहार से प्राप्त अशोक के द्विभाषी लेख से सिद्ध हो गया है। इस प्रकार स्थापित हुए मैत्री संबंध को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से सेल्यूकस न मेगस्थनीज नाम का एक दूत चंद्रगुप्त के दरबार में भेजा। यह वृत्तांत इस बात का प्रमाण है कि चंद्रगुप्त का प्राय: संपूर्ण राजयकाल युद्धों द्वारा साम्राज्यविस्तार करने में बीता होगा।

अंतिम श्रुतकेवाली भद्रबाहु स्वामी और सम्राट चंद्रगुप्त का आगमन दर्शाता शिलालेख (श्रवणबेलगोला)
श्रवणबेलगोला से मिले शिलालेखों के अनुसार, चंद्रगुप्त अपने अंतिम दिनों में जैन-मुनि हो गए। चन्द्र-गुप्त अंतिम मुकुट-धारी मुनि हुए, उनके बाद और कोई मुकुट-धारी (शासक) दिगंबर-मुनि नहीं हुए | अतः चन्द्र-गुप्त का जैन धर्ममें महत्वपूर्ण स्थान है। स्वामी भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोल चले गए। वहीं उन्होंने उपवास द्वारा शरीर त्याग किया। श्रवणबेलगोल में जिस पहाड़ी पर वे रहते थे, उसका नाम चंद्रगिरि है और वहीं उनका बनवाया हुआ 'चंद्रगुप्तबस्ति' नामक मंदिर भी है।

चन्द्रगुप्त

चन्द्रगुप्त समुद्रगुप्त के सभी पुत्रो में सर्वाधिक योग्य था अपने कायर भाई रामगुप्त के वध के बाद उसने रजशिहाष्न सभाला  अत्यंत वीर  और प्रातापी राजा था उसकी उपाधियों से यह प्रमाणित होता है कि उसकी उपाधियां विक्रमादित्य , विक्रमंक , नरेंद्र चंद्र सिह , विक्रम ,सिह चंद्र आदि थी ।          चन्द्रुप्तचंद्रगुप्त मौर्य एक वीर योद्धा एवं साम्राज्य निर्माता ही नहीं था, अपितु अत्यंत योग्य शासक भी था। मौर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था जो कालांतर की सभी भारतीय प्रशासनिक व्यवस्थाओं का आधार कही जा सकती है।
ये सभी योग्यताएं चंद्रगुप्त के गुरु एवं प्रधान मंत्री कौटिल्य की राजनीतिक सूझबूझ का ही परिणाम थी। इस प्रकार चंद्रगुप्त एक निपुण तथा लोकोपकारी शासन व्यवस्था का निर्माता था। उसका शासनादर्श बाद के हिन्दू शासकों के लिये अनुकरणीय बना रहा।
मौर्य प्रशासन के अधिकांश आदर्शों को आधुनिक युग के भारतीय शासन में भी देखा जा सकता है। चंद्रगुप्त ने अपने व्यक्तित्व एवं आचरण से कौटिल्य के प्रजाहित के राज्यादर्श को कार्य रूप में परिणत कर दिया।
उसकी सफलताओं ने भारत को विश्व के राजनीतिक मानचित्र में प्रतिष्ठित कर दिया।
चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा विदेशी कन्या से विवाह करना भारत के तत्कालीन सामाजिक जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन था। इससे उसके मस्तिष्क की उदारता का पता चलता है। की अयोग्यता 

Saturday, January 11, 2020

SAI baba

साईंबाबा (जन्म:अज्ञात[कृपया उद्धरण जोड़ें], मृत्यु: १५ अक्टूबर १९१८)[2] जिन्हें शिरडी साईंबाबा भी कहा जाता है एक भारतीय गुरुयोगी और फकीर थे जिन्हें उनके भक्तों द्वार
शिरडी के सांई बाबा chand miyan
225px
सांई बाबा का चित्र
मृत्यु15 अक्टूबर 1918[1]
शिरडीबंबई प्रेसीडेंसीब्रितानी भारत वर्तमान में महाराष्ट्रभारत)
दर्शनभक्ति योगसूफ़ीवादज्ञान योगकर्म योग
धर्महिन्दू
दर्शनभक्ति योगसूफ़ीवादज्ञान योगकर्म योग
राष्ट्रीयताभारतीय

साई-भक्ति का विरोधसंपादित करें

द्वारका और श्रृगेरी पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वतीबताते हैं कि साई एक मुसलमान थे और उनका नाम चांद मियां था और वो एक बाबा थे भगवान नहीं वो स्वयं कहते थे में भगवान का सेवक हूँ स्वयं भगवान नहीं,हिन्दु सनातनियो को भगवान की भक्ति करनी चाहिए न कि एक मनुष्य की,वो1838 में पैदा हए और 1908 में चल बसे थे। वे साई-भक्ति को हिन्दू धर्म को बिगाड़ने का प्रयास मानते हैं।[5]

सन्दर्भसंपादित करें

  1.  "Shirdi Sai Baba's 97th death anniversary: The one who was revered by all"इंडिया टुडे. 15 October 2015. मूल से 31 May 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 November 2017.
  2.  Ruhela, Satya Pal (1998). The Spiritual Philosophy Of Shri Shirdi Sai Baba(अंग्रेज़ी में). Diamond Pocket Books (P) Ltd. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788171820900. अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2018.
  3.  Rao, Ammula Sambasiva (2011). Life History of SHIRDI SAI BABA (अंग्रेज़ी में). Sterling Publishers Pvt. Ltd. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120790650. अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2018.
  4.  Satpathy, C. B. (2011). Shirdi Sai Baba and Other Perfect Masters (अंग्रेज़ी में). Sterling Publishers Pvt. Ltd. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120790513. अभिगमन तिथि 4 जुलाई 2018.
  5.  व्यक्ति विशेष : साईं बाबा हिन्दू या मुसलमान!

बाहरी कड़ियाँसंपादित करें